Truth of RSS- India's Pseudo- Nationalists

आर.एस.एस., यानी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन व “सच्चे देशभक्तों” का संगठन बताता है। उसका दावा है कि उसकी विचारधारा हिन्दुत्व और “राष्ट्रवाद” है। उनके राष्ट्र की परिभाषा क्या है यह आर.एस.एस. की शाखाओं में प्रचलित “प्रार्थना” और “प्रतिज्ञा” से साफ़ हो जाता है। अपनी “प्रार्थना” और “प्रतिज्ञा” में संघी हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज की रक्षा की बात करते हैं। स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्षता और जनवाद में इनका कोई यक़ीन नहीं है। हिन्दू समाज की भी संघियों की अपनी अपनी परिभाषा है। हिन्दुओं से इनका मतलब मुख्य और मूल रूप से उच्च जाति के हिन्दू पुरुष हैं। संघी ‘मनुस्मृति’ को भारत के संविधान के रूप में लागू करना चाहते थे। वही ‘मनुस्मृति’ जिसके अनुसार एक इंसान की जाति ही तय करती है कि समाज में उसका स्थान क्या होगा और जो इस बात की हिमायती है कि पशु, शूद्र और नारी सभी ताड़न के अधिकारी हैं। आर.एस.एस. का ढाँचा लम्बे समय तक सिर्फ़ पुरुषों के लिए ही खुला था। संघ के “हिन्दू राष्ट्र” की सदस्यता उच्च वर्ण के हिन्दू पुरुषों के लिए ही खुली है; बाकियों को दोयम दर्जे की स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए; यानी, कि मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों, स्त्रियों आदि को। संघ के तमाम कुकृत्यों पर चर्चा करना यहाँ हमारा मक़सद नहीं है क्योंकि उसके लिए तो एक वृहत् ग्रन्थ लिखने की ज़रूरत पड़ जायेगी। हमारा मक़सद है उन सभी कुकृत्यों के पीछे काम करने वाली विचारधारा और राजनीति का एक संक्षिप्त विवेचन करना।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा क्या है? अगर संघ के सबसे लोकप्रिय सरसंघचालक गोलवलकर और संस्थापक हेडगेवार के प्रेरणा-स्रोतों में से एक मुंजे की जुबानी सुनें तो संघ की विचारधारा स्पष्ट तौर पर फ़ासीवाद है। गोलवलकर ने अपनी पुस्तकों ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में स्पष्ट शब्दों में इटली के फासीवाद और जर्मनी के नात्सीवाद की हिमायत की। हिटलर ने यहूदियों के सफाये के तौर पर जो ‘अन्तिम समाधान’ पेश किया, गोलवलकर ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है और लिखा है कि हिन्दुस्तान में भी हिन्दू जाति की शुद्धता की हिफ़ाज़त के लिए इसी प्रकार का ‘अन्तिम समाधान’ करना होगा। संघ का सांगठनिक ढांचा भी मुसोलिनी और हिटलर की पार्टी से हूबहू मेल खाता है। इटली का फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी जनतंत्र का कट्टर विरोधी था और तानाशाही में आस्था रखता था। मुसोलिनी के मुताबिक “एक व्यक्ति की सरकार एक राष्ट्र के लिए किसी जनतंत्र के मुकाबले ज़्यादा असरदार होती है।” फ़ासीवादी पार्टी में ‘ड्यूस’ के नाम पर शपथ ली जाती थी, जबकि हिटलर की नात्सी पार्टी में ‘फ़्यूहरर’ के नाम पर। संघ का ‘एक चालक अनुवर्तित्व’ जिसके अन्तर्गत हर सदस्य सरसंघचालक के प्रति पूर्ण कर्मठता और आदरभाव से हर आज्ञा का पालन करने की शपथ लेता है, उसी तानाशाही का प्रतिबिम्बन है जो संघियों ने अपने जर्मन और इतावली पिताओं से सीखी है। संघ ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ यानी कि एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल, जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है, के ज़रिये काम करता है, जिसमें जनवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यही विचारधारा है जिसके अधीन गोलवलकर (जो संघ के सबसे पूजनीय सरसंघचालक थे) ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम अधिवेशन को भेजे अपने सन्देश में भारत में संघीय ढाँचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को समाप्त कर एकात्म शासन प्रणाली को लागू करने का आह्वान किया था। संघ मज़दूरों पर पूर्ण तानाशाही की विचारधारा में यक़ीन रखता है और हर प्रकार के मज़दूर असन्तोष के प्रति उसका नज़रिया दमन का होता है। यह अनायास नहीं है कि इटली और जर्मनी की ही तरह नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मज़दूरों पर नंगे किस्म की तानाशाही लागू कर रखी है। अभी हड़ताल करने पर कानूनी प्रतिबन्ध तो नहीं है, लेकिन अनौपचारिक तौर पर प्रतिबन्ध जैसी ही स्थिति है; श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है, और मोदी खुद बोलता है कि गुजरात में उसे श्रम विभाग की आवश्यकता नहीं है! ज़ाहिर है-मज़दूरों के लिए लाठियों-बन्दूकों से लैस पुलिस और सशस्त्र बल तो हैं ही! जर्मनी और इटली में भी इन्होंने पूँजीपति वर्ग की तानाशाही को सबसे बर्बर और नग्न रूप में लागू किया था और यहाँ भी उनकी तैयारी ऐसी ही है। जर्मनी और इटली की ही तरह औरतों को अनुशासित करके रखने, उनकी हर प्रकार की स्वतन्त्रता को समाप्त कर उन्हें चूल्हे-चौखट और बच्चों को पैदा करने और पालने-पोसने तक सीमित कर देने के लिए संघ के अनुषंगी संगठन तब भी तत्पर रहते हैं, जब भाजपा शासन में नहीं होती। श्रीराम सेने, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् के गुण्डे लड़कियों के प्रेम करने, अपना जीवन साथी अपनी इच्छा से चुनने, यहाँ तक कि जींस पहनने और मोबाइल इस्तेमाल करने तक पर पाबन्दी लगाने की बात करते हैं। यह बात अलग है कि यही सलाह वे कभी सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे, उमा भारती, या मीनाक्षी लेखी को नहीं देते जो कि औरतों को गुलाम बनाकर रखने के मिशन में उनके साथ खड़ी औरतें हैं! गोलवलकर ने स्वयं औरतों के बारे में ऐसे विचार व्यक्त किये हैं। उनके विचारों पर अमल हो तो औरतों का कार्य “वीर हिन्दू पुरुषों” को पैदा करना होना चाहिए!

जहाँ तक बात इनके “राष्ट्रवादी” होने की है, तो भारतीय स्वतन्त्र संग्राम के इतिहास पर नज़र डालते ही समझ में आ जाता है कि यह एक बुरे राजनीतिक चुटकुले से ज़्यादा और कुछ भी नहीं है। संघ के किसी भी नेता ने कभी भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ अपना मुँह नहीं खोला। जब भी संघी किसी कारण पकड़े गए तो उन्होंने बिना किसी हिचक के माफ़ीनामे लिख कर, अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित की है। स्वयं पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपयी ने भी यही काम किया था। संघ ने किसी भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान संघ ने उसका बहिष्कार किया। संघ ने हमेशा ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफ़ादारी बनायी रखी और देश में साम्प्रदायिकता फैलाने का अपना काम बखूबी किया। वास्तव में साम्प्रदायिकता फैलाने की पूरी साज़िश तो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के ही दिमाग़ की पैदावार थी और ‘बाँटो और राज करो’ की उनकी नीति का हिस्सा थी। लिहाज़ा, संघ के इस काम से उपनिवेशवादियों को भी कभी कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य ने भी इसी वफ़ादारी का बदला चुकाया और हिन्दू साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों को कभी अपना निशाना नहीं बनाया। आर.एस.एस. ने हिन्दुत्व के अपने प्रचार से सिर्फ़ और सिर्फ़ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ हो रहे देशव्यापी आन्दोलन से उपजी कौमी एकजुटता को तोड़ने का प्रयास किया। ग़ौरतलब है कि अपने साम्प्रदायिक प्रचार के निशाने पर आर.एस.एस. ने हमेशा मुसलमानों, कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियन नेताओं को रखा और ब्रिटिश शासन की सेवा में तत्पर रहे। संघ कभी भी ब्रिटिश शासन-विरोधी नहीं था, यह बात गोलवलकर के 8 जून, 1942 में आर.एस.एस. के नागपुर हेडक्वार्टर पर दिए गए भाषण से साफ़ हो जाती है – “संघ किसी भी व्यक्ति को समाज के वर्तमान संकट के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष मढ़ते हैं तो असल में यह उनके अन्दर की कमज़ोरी होती है। शक्तिहीन पर होने वाले अन्याय के लिये शक्तिशाली को ज़िम्मेदार ठहराना व्यर्थ है।…जब हम यह जानते हैं कि छोटी मछलियाँ बड़ी मछलियों का भोजन बनती हैं तो बड़ी मछली को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बेवकूफ़ी है। प्रकृति का नियम चाहे अच्छा हो या बुरा सभी के लिये सदा सत्य होता है। केवल इस नियम को अन्यायपूर्ण कह देने से यह बदल नहीं जाएगा।” अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये इतिहास के उस कालक्रम पर रोशनी डालेंगे जहाँ संघ की स्थापना होती है। यहीं संघ की जड़ों में बसी प्रतिक्रियावादी विचारधारा स्पष्ट हो जाएगी।

आर.एस.एस. की स्थापना 1925 में नागपुर में विजयदशमी के दिन हुई थी। केशव बलिराम हेडगेवार आर.एस.एस. के संस्थापक थे। भारत में फ़ासीवाद उभार की ज़मीन एक लम्बे अर्से से मौजूद थी। आज़ादी के पहले 1890 और 1900 के दशक में भी हिन्दू और इस्लामी पुनुरुत्थानवादी ताकतें मौजूद थी पर उस समय के कुछ प्रगतिवादी राष्ट्रवादी नेताओं के प्रयासों द्वारा हिन्दू व इस्लामी पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रियावाद ने कोई उग्र रूप नहीं लिया। फ़ासीवादी उभार की ज़मीन हमेशा पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाली बेरोज़गारी, गरीबी, भुखमरी, अस्थिरता, असुरक्षा, और आर्थिक संकट से तैयार होती है। भारत ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश था। यहाँ पूँजीवाद अंग्रेज़ों द्वारा आरोपित औपनिवेशक व्यवस्था के भीतर पैदा हुआ। एक उपनिवेश होने के कारण भारत को पूँजीवाद ब्रिटेन से गुलामी के तोहफ़े के तौर पर मिला। भारत में पूँजीवाद किसी बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं आया। इस प्रकार से आये पूँजीवाद में जनवाद, आधुनिकता, तर्कशीलता जैसे वे गुण नहीं थे जो यूरोप में क्रान्तिकारी रास्ते से आये पूँजीवाद में थे। इस रूप में यहाँ का पूँजीपति वर्ग भी बेहद प्रतिक्रियावादी, अवसरवादी और कायर किस्म का था जो हर प्रकार के प्रतिक्रियावाद को प्रश्रय देने को तैयार था। आज़ादी के बाद यहाँ हुए क्रमिक भूमि सुधारों के कारण युंकरों जैसा एक पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग भी मौजूद था। गाँवों में भी परिवर्तन की प्रक्रिया बेहद क्रमिक और बोझिल रही जिसने संस्कृति और सामाजिक मनोविज्ञान के धरातल पर प्रतिक्रिया के लिए एक उपजाऊ ज़मीन मुहैया करायी। निश्चित तौर पर, उन्नत पूँजीवादी देशों में भी, जहाँ पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियाँ हुई थीं, फासीवादी उभार हो सकता है और आज हो भी रहा है। लेकिन निश्चित तौर पर फासीवादी उभार की ज़मीन उन समाजों में ज़्यादा मज़बूत होगी जहाँ आधुनिक पूँजीवादी विकृति, रुग्णता, बर्बादी और तबाही के साथ मध्ययुगीन सामन्ती बर्बरता, निरंकुशता और पिछड़ापन मिल गया हो। भारत में ऐसी ज़मीन आज़ादी के बाद पूँजीवादी विकास के शुरू होने के साथ फासीवादी ताक़तों को मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिन्दुत्ववादी फासीवाद इसी ज़मीन पर पला-बढ़ा है।

आज जब पूँजीवाद अपने संकट का बोझ मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी पर डाल रहा है और महँगाई, बेरोज़गारी और भूख से उन पर कहर बरपा कर रहा है, तो जनता के आन्दोलन भी सड़कों पर फूट रहे हैं। चाहे वह मज़दूरों के आन्दोलन हों, ठेके पर रखे गये शिक्षकों, नर्सों और अन्य कर्मकारों के आन्दोलन हों, या फिर शिक्षा और रोज़गार के अधिकार के लिए छात्रों-युवाओं के आन्दोलन हों। यदि कोई क्रान्तिकारी विकल्प न हो तो पूँजीवाद के इसी संकट से समाज में उजड़ा हुआ टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग और लम्पट सर्वहारा वर्ग फ़ासीवादी प्रतिक्रिया का आधार बनते हैं। । ब्रिटिश भारत में भी फासीवादी विचारधारा का सामाजिक आधार इन्हीं वर्गों के ज़रिये पैदा हुआ था।

भारत के महाराष्ट्र में ऐसा टटपूँजिया वर्ग मौजूद था। महाराष्ट्र के व्यापारी और ब्राह्मण ही आर.एस.एस. का शुरुआती आधार बने। 1916 के लखनऊ समझौते और खिलाफ़त आन्दोलन के मिलने से धार्मिक सौहार्द्र की स्थिति बनी रही। परन्तु इस दौरान भी ‘हिन्दू महासभा’ जैसे हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन मौजूद थे। गाँधी द्वारा असहयोग आन्दोलन के अचानक वापस लिए जाने से एक हताशा फैली और ठहराव की स्थिति आयी। इतिहास गवाह है कि ऐसी हताशा और ठहराव की स्थितियों में ही प्रतिक्रियावादी ताक़तें सिर उठाती हैं और जनता को ‘गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं’ जैसा कि भगतसिंह ने कहा था। भारत का बुर्जुआ वर्ग एक तरफ़ साम्राज्यवाद से राजनीतिक स्वतन्त्रता चाहता था, तो वहीं वह मज़दूरों और किसानों के जाग जाने और विद्रोह का रास्ता अख्‍त़ियार करने से लगातार भयभीत भी रहता था। इसीलिए गाँधी ने कभी मज़दूरों को संगठित करने का प्रयास नहीं किया; उल्टे जब गुजरात के मज़दूरों ने गाँधी का जुझारू तरीके से साथ देने की पेशकश की तो गाँधी ने उन्हें शान्तिपूवर्क काम करने की हिदायत दी और कहा कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक तौर पर छेड़ा नहीं जाना चाहिए। यही कारण था कि असहयोग आन्दोलन के क्रान्तिकारी दिशा में मुड़ने के पहले संकेत मिलते ही गाँधी ने कदम पीछे हटा लिये और अंग्रेज़ों से समझौता कर लिया। भारतीय रुग्ण पूँजीपति वर्ग का राजनीतिक चरित्र ही दोहरा था। इसलिए उसने पूरी स्वतन्त्रता की लड़ाई में कभी आमूलगामी रास्ता अख्‍त़ियार नहीं किया और हमेशा ‘दबाव-समझौता-दबाव’ की रणनीति अपनायी ताकि जनता की क्रान्तिकारी पहलकदमी को निर्बन्ध किये बिना, एक समझौते के रास्ते एक पूँजीवादी राजनीतिक स्वतन्त्रता मिल जाये। गाँधी और कांग्रेस की यह रणनीति भी भारत में फासीवाद के उदय के लिए ज़िम्मेदार थी। मिसाल के तौर पर असहयोग आन्दोलन के वापस लिये जाने के बाद जो हताशा फैली उसी के कारण प्रतिक्रियावादी ताक़तें हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने में सफल हुईं। एक तरफ़ इस्लामी कट्टरपंथ तो दूसरी ओर हिन्दू पुनरुत्थानवाद की लहर चल पड़ी। सावरकर बंधुओं का समय यही था। आर.एस.एस. की स्थापना इन्हीं सब घटनाओं की पृष्ठभूमि में हुई।

संघ के संस्थापक हेडगेवार संघ के निर्माण से पहले कांग्रेस के साथ जुड़े थे। 1921 में ख़िलाफ़त आन्दोलन के समर्थन में दिए अपने भाषण की वजह से उन्हें एक साल की जेल हुई। आर.एस.एस. के द्वारा ही छापी गयी उनकी जीवनी “संघवृक्ष के बीज” में लिखा है कि जेल में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम में हासिल हुए अनुभवों ने उनके मस्तिष्क में कई सवाल पैदा किये और उन्हें लगा कि कोई और रास्ता ढूँढा जाना चाहिए। इसी किताब में यह भी लिखा हैं कि हिन्दुत्व की ओर हेडगेवार का रुझान 1925 में शुरू हुआ। बात साफ़ है, जेल जाने के पश्चात जो “बौद्धिक ज्ञान” उन्हें हासिल हुआ उसके बाद उन्होंने आर.एस.एस. की स्थापना कर डाली। हेडगेवार जिस व्यक्ति के सम्पर्क में फ़ासीवादी विचारों से प्रभावित हुए वह था मूंजे। मूंजे वह तार है जो आर.एस.एस. के संस्थापक हेडगेवार और मुसोलिनी के फ़ासीवादी विचारों से संघ की विचारधारा को जोड़ता है। मज़ि‍र्आ कसोलरी नामक एक इतालवी शोधकर्ता ने आर.एस.एस. के संस्थापकों और नात्सियों व इतालवी फ़ासीवादियों के बीच के सम्पर्कों पर गहन शोध किया है। कसोलरी के अनुसार हिन्दू राष्ट्रवादियों की फ़ासीवाद और मुसोलिनी में रुचि कोई अनायास होने वाली घटना नहीं है, जो केवल चन्द लोगों तक सीमित थी, बल्कि यह हिन्दू राष्ट्रवादियों, ख़ासकर महाराष्ट्र में रहने वाले हिन्दू राष्ट्रवादियों के इतालवी तानाशाही और उनके नेताओं की विचारधारा से सहमति का नतीजा था। इन पुनरुत्थानवादियों को फ़ासीवाद एक “रूढ़िवादी क्रान्ति” के समान प्रतीत होता था। इस अवधारणा पर मराठी प्रेस ने इतालवी तानाशाही की उसके शुरुआती दिनों से ही खूब चर्चा की। 1924-1935 के बीच आर.एस.एस. से करीबी रखने वाले अखबार ‘केसरी’ ने इटली में फ़ासीवाद और मुसोलिनी की सराहना में कई सम्पादकीय और लेख छापे। जो तथ्य मराठी पत्रकारों को सबसे अधिक प्रभावित करता था वह था फ़ासीवाद का “समाजवाद” से उद्भव, जिसने इटली को एक पिछड़े देश से एक विश्व शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया। अपने सम्पादकियों की एक श्रृंखला में केसरी ने इटली के उदारवादी शासन से तानाशाही तक की यात्रा को अराजकता से एक अनुशासित स्थिति की स्थापना बताया। मराठी अखबारों ने अपना पर्याप्त ध्यान मुसोलिनी द्वारा किये गए राजनीतिक सुधारों पर केन्द्रित रखा, ख़ास तौर पर संसद को हटा कर उसकी जगह ‘ग्रेट कॅाउंसिल ऑफ़ फ़ासिज़्म’ की स्थापना। इन सभी तथ्यों से यह साफ़ हो जाता है कि 1920 के अन्त तक महाराष्ट्र में मुसोलिनी की फ़ासीवादी सत्ता अखबारों के माध्यम से काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर रही थी। फ़ासीवाद का जो पहलू हिन्दू राष्ट्रवादियों को सबसे अधिक आकर्षक लगा वह था समाज का सैन्यकरण जिसने एक तानाशाह की अगुवाई में समाज का रूपान्तरण कर दिया था। इस लोकतंत्र-विरोधी व्यवस्था को हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा ब्रिटिश मूल्यों वाले लोकतंत्र के मुकाबले एक सकारात्मक विकल्प के रूप में देखा गया।

पहला हिन्दू राष्ट्रवादी जो फ़ासीवाद सत्ता के सम्‍पर्क में आया वह था हेडगेवार का उस्ताद मुंजे। मुंजे ने संघ को मज़बूत करने और उसे देशव्यापी संस्था बनाने की अपनी इच्छा व्यक्त की, जो जगजाहिर है। 1931 फ़रवरी-मार्च के बीच मूंजे ने राउण्ड टेबल कान्फ्रेंस से लौटते हुए यूरोप की यात्रा की, जिस दौरान उसने मुसोलिनी से मुलाकात भी की। मूंजे ने रोम में इतालवी फ़ासीवादियों के मिलिट्री कॅालेज – फ़ासिस्ट अकेडमी ऑफ़ फिजिकल एजुकेशन, सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ़ फ़िजिकल एजुकेशन और इन सबमें से सबसे महत्वपूर्ण बलिल्ला और एवां गारडिस्ट आर्गेनाइजेशन के गढ़ों को जाकर बहुत बारीकी से देखा। इससे मुंजे बहुत प्रभावित हुआ। ये स्कूल या कॉलेज शिक्षा के केंद्र नहीं थे बल्कि मासूम बच्चों और लड़कों के दिमागों में ज़हर गोलकर, उनका ‘ब्रेनवॉश’ करने के सेण्टर थे। यहाँ 6 वर्ष से 18 वर्ष की आयु के युवकों की भर्ती कर उन्हें फ़ासीवादी विचारधारा के अधीन करने के पूरे इंतज़ाम थे। आर.एस.एस. का यह दावा कि इसका ढाँचा हेडगेवार के काम और सोच का नतीजा था एक सफ़ेद झूठ है क्योंकि संघ के स्कूल व अन्य संस्थाएँ और खुद संघ का पूरा ढाँचा इतावली फ़ासीवाद पर आधारित है। और उनसे हूबहू मेल खाता है। भारत वापस आते ही, मुंजे ने हिन्दुओं के सैन्यीकरण की अपनी योजना ज़मीन पर उतारनी शुरू कर दी। पुणे पहुँच कर मुंजे ने “द मराठा” को दिए एक साक्षात्कार में हिन्दू समुदाय के सैन्यीकरण के सम्बन्धों में निम्नलिखित बयान दिया, “नेताओं को जर्मनी के युवा आन्दोलन, बलिल्ला और इटली की फ़ासीवादी संगठनों से सीख लेनी चाहिए।”

मुंजे और आर.एस.एस. की करीबी और इनकी फ़ासीवादी विचारधारा की पुष्टि 1933 में ब्रिटिश सूत्रों में छपी खुफ़िया विभाग की रिपोर्ट से हो जाती है। इस रिपोर्ट का शीर्षक था “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर टिप्पणी” जिसमें संघ के मराठी भाषी क्षेत्रों में पुर्नगठन का ज़िम्मेदार मुंजे को ठहराया गया है। इस रिपोर्ट में आर.एस.एस. के चरित्र, इनकी गतिविधियों के बारे में कहा था कि – “यह कहना सम्भवतः कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि संघ भविष्य में भारत के लिए वह बनना चाहता है जो फ़ासीवादी इटली के लिए हैं और नात्सी लोग जर्मनी के लिए हैं।” (नेशनल आर्काइव ऑफ़ इण्डिया) 1934 में मुंजे ने अपनी एक संस्था “भोंसला मिलिट्री स्कूल” की नींव रखी, उसी साल मुंजे ने “केन्द्रीय हिन्दू सैन्य शिक्षा समाज’, जिसका मुख्य उद्देश्य हिन्दुओं के सैन्य उत्थान और हिन्दू युवाओं को अपनी मातृभूमि कि रक्षा करने योग्य बनाना था, की बुनियाद भी रखी। जब भी मुंजे को हिन्दू समाज के सैन्यकरण के व्यावहारिकता का उदहारण देने की ज़रूरत महसूस हुई तो उसने इटली की सेना और अर्द्धसेना ढाँचे के बारे में जो स्वयं देखा था, वह बताया। मुंजे ने बलिल्ला और एवां गार्डिस्टों के सम्बन्ध में विस्तारित विवरण दिए। जून 1938 में मुम्बई में स्थित इतावली वाणिज्य दूतावास ने भारतीय विद्यार्थियों को इतालवी भाषा सिखने के लिए भर्ती शुरू की, जिसके पीछे मुख्य उद्देश्य युवाओं को इटली के फ़ासीवादी प्रचार का समर्थक बनाना था। मारिओ करेली नाम के एक व्यक्ति को इस कार्य के लिए रोम से भारत भेजा गया। भर्ती किये गए विद्यार्थियों में से एक माधव काशीनाथ दामले, ने करेली के सुझाव के बाद मुसोलिनी की पुस्तक “फ़ासीवाद का सिद्धांत” का मराठी में अनुवाद किया और उसे 1939 में एक  श्रृंखलाबद्ध तरीके से लोहखंडी मोर्चा (आयरन फ्रण्ट) नामक पत्रिका में छापा गया। महाराष्ट्र में फैले फ़ासीवादी प्रभाव का एक और उदाहरण एम.आर. जयकर, जो हिन्दू महासभा के एक प्रतिष्ठित नेता थे, द्वारा गठित ‘स्वास्तिक लीग’ थी। 1940 में नात्सियों के असली चरित्र के सामने आने के साथ इस लीग ने खुद को नात्सीवाद से अलग कर लिया।

ओरिजीत सेन का कार्टून

1930 के अन्त तक, आर.एस.एस. की पैठ महाराष्ट्र के ब्राह्मण समाज में बन गयी थी। हेडगेवार ने मुंजे के विचारों से सहमति ज़ाहिर करते हुए, संघ की शाखाओं में फ़ासीवादी प्रशिक्षण की शुरुआत की। लगभग इसी समय विनायक दामोदर सावरकर, जिसके बड़े भाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापकों में से एक थे, ने जर्मनी के नात्सियों द्वारा यहूदियों के सफ़ाये को सही ठहराया और भारत में मुसलमानों की “समस्या” का भी यही समाधान सुझाया। जर्मनी में “यहूदी प्रश्न’ का अन्तिम समाधान सावरकर के लिए मॉडल था। संघियों के लिए राष्ट्र के सबसे बड़े दुश्मन थे मुसलमान! ब्रिटिश साम्राज्य उनकी निन्दा या क्रोध का कभी पात्र नहीं था। आर.एस.एस. ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ़ हों। संघ द्वारा ही छपी हेडगेवार की जीवनी जिसका ज़िक्र पहले भी लेख में किया जा चुका है, में ‘डाक्टर साहब’ की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया है कि संघ स्थापना के बाद ‘डाक्टर साहब’ अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के सम्बन्ध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका न के बराबर रहा करती थी। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर 1940 से 1973 तक संघ के सुप्रीमो रहे। गोलवलकर के ही नेतृत्व में संघ के वे सभी संगठन अस्तित्व में आये जिन्हें हम आज जानते हैं। गोलवलकर ने संघ की फ़ासीवादी विचारधारा को एक सुव्यवस्थित रूप दिया और इसकी पहुँच को महाराष्ट्र के ब्राह्मणों से बाहर निकाल अखिल भारतीय संगठन का रूप दिया। संघ ने इसी दौरान अपने स्कूलों का नेटवर्क देश भर में फैलाया। संघ की शाखाएँ भी गोलवलकर के नेतृत्व में पूरे देश में बड़े पैमाने पर फैलीं। यही कारण है कि संघ के लोग उन्हें गुरु जी कहकर सम्बोधित करते हैं।

इनके किये-धरे पर लिखना हो तो पूरी किताब लिखी जा सकती है। और कई अच्छी किताबें मौजूद भी हैं परन्तु हमारा यह मकसद नहीं था। हमारा यहाँ सिर्फ़ यह मकसद था कि यह दिखाया जाए कि संघ का विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक ढाँचा एक फ़ासीवादी संगठन का ढाँचा है। इसकी विचारधारा फ़ासीवाद है। अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले और इटली व जर्मनी के फासीवादियों व नात्सियों से उधार ली निक्कर, कमीज़ और टोपी पहन कर इन मानवद्रोहियों ने देश और धर्म के नाम पर अब तक जो उन्माद फैलाया है वह फ़ासीवादी विचारधारा को भारतीय परिस्थितियों में लागू करने का नतीजा है। भारतीय संस्कृति, भारतीय अतीत के गौरव, और भाषा आदि की दुहाई देना तो बस एक दिखावा है। संघ परिवार तो अपनी विचारधारा, राजनीति, संगठन और यहाँ तक कि पोशाक से भी पश्चिमपरस्त है! और पश्चिम का अनुसरण करने में भी इसने वहाँ के जनवादी और प्रगतिशील आदर्शों का अनुसरण करने की बजाय, वहाँ की सबसे विकृत, मानवद्रोही और बर्बर विचारधारा, यानी कि फासीवाद-नात्सीवाद का अनुसरण किया है। हमारा मक़सद ‘संस्कृति’, ‘धर्म’ और ‘राष्ट्रवाद’ की दुहाई देने वाले इन फासीवादियों की असली जन्मकुण्डली को आपके सामने खोलकर रखना था, क्योंकि पढ़ी-लिखी आबादी और विशेषकर नौजवानों का एक हिस्सा भी देशभक्ति करने के महान उद्देश्य से इन देशद्रोहियों के चक्कर में फँस जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि इनके पूरे इतिहास को जाना जाय और समझा जाय कि देशप्रेम, राष्ट्रप्रेम से इनका कभी लेना-देना था ही नहीं। यह देश में पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही लागू करने के अलावा और कुछ नहीं करना चाहते।

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