भगत सिंह का आज के पत्रकारिता को आईना-

हर साल २८ सितम्बर फेसबुक, व्हाट्सअप और ट्विटर शहीद भगत सिंह के तस्वीर, कथन और विचारों अंशो से भर जाता है और वजह रहती है उनकी जयंती का दिन पर दिन गुज़रते ही हम उस इंसान की सोच और प्राथमिकताओं को भी भुला देते है और फिर इंतज़ार रहता है अगले साल इसी दिन का।
पर सच्चे मन से अगर सोचें तो क्या सच में हम शहीद भगत सिंह और उनके विचारों से परिचित रहे है?
क्या हम इस बात से अवगत है की उन्होंने बेम और पिस्तौल से ज्यादा कलम का इस्तमाल किया और क्यों किया?
इसका जवाब शायद "नहीं" हो। पर जानना ज़रूरी हैं। कम समय में जिए गए ज़िंदगी में पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए बहुत सारे सीख को वो छोड़ गए पर उनमें से एक सीख युवा पीढ़ी को ज़रूर ज़हन में रखना चाहिए और वो है पत्रकारिता का सही महत्व।

वो खुद एक ऐसे परिवार का हिस्सा थे जिन लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत की ईंट से ईंट बजा रखी थी। कुछ बरस ही बीते थे कि जलियां वाला बाग़ का बर्बर नरसंहार हुआ। सारा देश बदले की आग में जलने लगा। भगत सिंह का ख़ून खौल उठा। कुछ संकल्प अवचेतन में समा गए। अठारह सौ सत्तावन के ग़दर से लेकर कूका विद्रोह तक जो भी साहित्य मिला, अपने अंदर पी लिया। एक एक क्रांतिकारी की कहानी किशोर भगत सिंह की ज़ुबान पर थी। होती भी क्यों परिवार की कई पीढ़ियां अंग्रेज़ी राज से लड़तीं रहीं थीं। दादा अर्जुन सिंह, पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह और चाचा स्वर्ण सिंह को देश के लिए मर मिटते भगत सिंह ने देखा था। चाचा स्वर्ण सिंह सिर्फ तेईस साल की उमर में जेल की यातनाओं का विरोध करते हुए शहीद हो चुके थे। दूसरे चाचा अजीत सिंह को देश निकाला दिया गया था। दादा और पिता आए दिन आंदोलनों की अगुआई करते जेल जाया करते थे। पिता गांधी और कांग्रेस के अनुयायी थे तो चाचा गरम दल की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। घर में घंटों बहसें होतीं थीं  और इस तरह भगत सिंह के ज़ेहन में विचारों की तलवार तेज़ होती गयी।

एक वक़्त आता है उनकी ज़िंदगी में जब कलम के कमाल को दिखाने की जरूररत पड़ी और वो इस संजीदगी से अपनी छाप छोड़ जाएगी ये किसी ने सोचा था। ये उन दिनों की बात है जब घर छोड़कर भगतसिंह जा पहुंचे थे कानपुर। दिग्गज देशभक्त पत्रकार गणेश शंकर वद्यार्थी उन दिनों कानपुर से प्रताप अखबार का प्रकाशन करते थे जिसमे भगत सिंह बलवंत सिंह के नाम से लिखा करते थे। उनके विचारोतेजक लेख प्रताप में छपते और उन्हें पढ़कर लोगों के दिलो दिमाग में क्रांति के प्रति एक सहानुभूति दिखने लगी १९२८ में कीर्ति लिए उन्होंने एक लेख लिखा "सांप्रदायिक दंगे और इनका इलाज" बलवंत सिंह के नाम से इस लेखों को लिखा। इसकी वजह थी १९२४ में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली।

सांप्रदायिक दंगे और इनका इलाज में वो ख़ास तौर पर पत्रकारों पर एक टिपण्णी लिखतें है जो आज हिंदुस्तान में अति प्रासांगिक है। सांप्रदायिक दंगों का होना मुख्या रूप से धर्म की राजनीति करने वाले राजनेताओं को फायदा पहुंचने का एक रास्ता है पर दूसरी और से अखबार वालों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उस लेख की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत है
भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।

"अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है किभारत का बनेगा क्या?"
पत्रकार होने के नाते आज के दिन इस युवा विचारक के इस लेख को अनदेखा करना एक सोची समझी भूल होगी। आज हिंदुस्तान में खुले तौर पर दंगे तो नहीं हो रहे पर धार्मिक वैमनस्य इस हद तक हमे घेर चूका है मानो हर वक़्त हमे किसी भी नए इंसान से बात करने से पहले उसकी धार्मिक पहचान का ख़याल ज़रूर रखते है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भारत में साम्प्रदायिकता की और बढ़ चूका है और हरदिन चैनलों पर प्रतिक्रियावादी विचारों को हवा देने का काम किया जाता है, स्क्रीन से लेकर अखबार तक नफरत को बेचा जा रहा और हमें ये विश्वास दिलाने की कोशिश रहती की एकरूपता को ही आपनायें नाकि विभिन्नताओं को। बेरोज़गारी, बिगड़ती अर्थव्यवस्था, जर्जर सरकारी चिकित्सा पर चर्चाओं की जगह हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, भारत-पाकिस्तान, शमशान-कब्रिस्तान जैसे विषयों पर प्राइम टाइम कर पत्रकारिता के मूल मंत्रो को धूमिल किया जाता है।
इस नफरत के बीज को समाज में टीवी मीडिया और अखबार के भड़काऊ षीर्सक के माध्यम से आज के उन पत्रकारों ने बोया है जो भारत की धमनियों में बसे बहुलवाद को सिरे से नकार कर उसे ध्वस्त करने में लगे है। सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज अभी बाकी है और संभवत: वो तभी हो सकता है जब पत्रकारिता जगत के लोग नफरत बेचने के काम से सीधे टकराओ ले और धर्म की राजनीत को मुँह तोड़ जवाब दें और इस देश की एकता और अखंडता को बचाएँ
आज इस महान और जीवंत क्रांतिकारी के जयंती पर हमे एक प्रतिज्ञा करने की ज़रूरत है- भगत सिंह को एक आक्रामक पिस्तौल धारी युवा के रूप में नहीं बल्कि कलम धारी चिंतक के रूप देखने का ये एक उपुक्त समय है और ये तभी संभव हो सकता है जब देश का युवा वर्ग उनसे और उनके लिखे दस्तावेज़ों से हरदिन रूबरू हो। कम से कम इसी बात को सोच कर की उन्होंने ने इतना कुछ लिखा और अपनी विचारों को लेखन का स्वरूप दिया पर क्यों और किसके लिए?

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